सर्वमित्रा सुरजन
अरे महिला हो, कुछ जानती नहीं हो, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भरे सदन में राजद विधायक रेखा देवी के लिए ऐसा कहा। इससे पहले कल नीतीश कुमार की पार्टी जदयू के सांसद ललन सिंह ने राबड़ी देवी के बारे में कहा कि उन्हें हस्ताक्षर करना तो ढंग से आता नहीं, वो बजट क्या समझेंगी।
दिल्ली सल्तनत पर 1236 से 1240 के बीच शासन करने वाली रजिया सुल्तान के लिए कहा जाता था कि उनमें सारी खूबियां थीं, सिवाए एक के, कि वह महिला थी। हिंदुस्तान 1236 से 2024 में आ गया, लेकिन महिलाओं के लिए हिकारत भरी सोच अब भी वैसी ही है। क्या फर्क पड़ता है कि इस देश में एक महिला प्रधानमंत्री हो चुकी हैं, अभी एक महिला राष्ट्रपति हैं, इससे पहले भी एक महिला राष्ट्रपति हो चुकी हैं। अंतरिक्ष से लेकर सेना, पुलिस, चिकित्सा, न्याय क्षेत्र, पत्रकारिता, उद्योग हर जगह महिलाएं अपनी काबिलियत का लोहा मनवाती रही हैं। लेकिन इस बात का हवाला देकर यह कहना कि देश में महिला सशक्तिकरण हो रहा है और महिलाओं को अब बराबरी का दर्जा मिलने लगा है, खुद को छलावे में रखने से अधिक और कुछ नहीं है।
अगर महिलाएं अपने लिए बनाए दायरों से निकल कर बाहर आ रही हैं और उनके लिए असंभव, अछूते समझे जाने वाले क्षेत्रों में भी काम कर रही हैं, तो इसके पीछे या तो उनकी कोई मजबूरी होती है या परिवार का अभूतपूर्व सहयोग और प्रगतिशील सोच का असर होता है। इसका अर्थ ये बिल्कुल नहीं है कि देश में महिलाओं के लिए सोच बदल चुकी है। मानसिकता में अब भी लैंगिक भेदभाव कूट-कूट कर भरा हुआ है, जिसके उदाहरण उपरोक्त बयानों से समझे जा सकते हैं।
देश की वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने सात बार बजट पेश करके रिकॉर्ड बना लिया है। उनके बजट का सटीक और तार्किक विश्लेषण करने वालों में कई महिलाएं भी शामिल होंगी, जिन्हें अर्थशास्त्र की गहरी समझ होगी। लेकिन क्या इसका यह अर्थ है कि राबड़ी देवी को इस बारे में बोलने का कोई हक नहीं है, क्योंकि ललन सिंह के हिसाब से उन्हें हस्ताक्षर करने ठीक से नहीं आते तो वे बजट पर भी नहीं बोल सकती। क्या ललन सिंह नरेंद्र मोदी के बारे में भी ऐसी ही बात कह सकते हैं, क्योंकि श्री मोदी हस्ताक्षर अच्छे से कर लें, लेकिन अर्थशास्त्र के ज्ञाता तो वे नहीं हैं। उनकी डिग्री भी एंटायर पॉलिटिकल साइंस की है, अर्थशास्त्र की नहीं है। फिर भी वे शिक्षकों से लेकर वैज्ञानिकों, बुनकरों से लेकर उद्योगपतियों सबको समझाइश देते रहते हैं।
राबड़ी देवी को और देश के तमाम नागरिकों को बजट पर बोलने का उतना ही हक है जितना ललन सिंह या नरेंद्र मोदी को है। क्योंकि बजट देश के आम नागरिकों के लिए बनता है और उनके ही धन से बनता है, इसलिए अपने विचार रखने का अधिकार भी है। ललन सिंह को अगर राबड़ी देवी के विचारों को खारिज करना ही था तो अपने तर्क सामने रखते। लेकिन उनका पौरुषवादी अहंकार यहां आड़े आ गया कि एक महिला, जो उनके हिसाब से पर्याप्त शिक्षित भी नहीं है और ऊपर से पूर्व मुख्यमंत्री, चार बार की विधायक और विधानपरिषद की सदस्य हैं, वो कैसे बजट पर अपनी राय दे सकती हैं।
कुछ ऐसी ही तकलीफ नीतीश कुमार को भी हो गई, जब राजद विधायक रेखा देवी को उन्होंने केवल इसलिए चुप कराना चाहा, क्योंकि वे एक महिला हैं। जाति जनगणना के मुद्दे पर रेखा देवी अपनी बात रख रही थीं और नीतीश कुमार को बोलने नहीं दे रही थीं, तो गुस्से में आकर नीतीश कुमार ने कहा कि बोल रही हो, फालतू बात। इन लोगों ने किसी महिला को आगे बढ़ाया है क्या? पांचवीं के बाद मैंने महिलाओं को पढ़ाया है। इसलिए कह रहे हैं, चुपचाप सुनो।
लेकिन नीतीश कुमार इस बात को भूल गए कि रेखा देवी को मसौढ़ी की जनता ने विधानसभा में इसलिए नहीं भेजा कि वो चुपचाप सरकार की बात सुनती रहें, बल्कि जनता की ओर से आवाज उठाएं इसलिए भेजा है। नीतीश कुमार यहां महिला होने के नाम पर रेखा देवी को चुप कराने लगे और ये भूल गए कि वे खुद जनता की आवाज दबा रहे हैं।
अगर जदयू अभी इंडिया गठबंधन का साथी होता तो राष्ट्रीय महिला आयोग के स्वतः संज्ञान लिए नोटिस नीतीश कुमार और ललन सिंह को पहुंच जाते। लेकिन जदयू के कारण भाजपा की सरकार सत्ता में बनी हुई है, तो एक तरह से जदयू को भी महिलाओं के अपमान की खुली छूट मिल ही गई है।
याद कीजिए कि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वाणी और विचार महिलाओं के लिए किस तरह के रहे हैं। राहुल गांधी ने इंडिया गठबंधन की मुंबई की रैली में शक्ति शब्द का जिक्र भाजपा को घेरने के लिए किया तो नरेंद्र मोदी ने इसे मातृ शक्ति से जोड़ कर कहा कि मैं आखिरी सांस तक शक्ति के सम्मान के लिए लड़ूंगा।
लेकिन इसी चुनाव में मंगलसूत्र बेचने से लेकर विपक्षी दलों के मुजरा करने की बात कहकर उन्होंने साबित कर दिया कि उनकी नजर में महिलाओं का ओहदा क्या है। सोनिया गांधी के लिए श्री मोदी कांग्रेस की विधवा और सुनंदा पुष्कर के लिए पचास लाख की गर्लफ्रेंड जैसी ओछी टिप्पणी कर ही चुके हैं। प.बंगाल जाकर संदेशखोली की महिलाओं के दर्द का जिक्र करने वाले नरेंद्र मोदी आज तक मणिपुर नहीं गए, न ही वहां की पीड़ित महिलाओं की कोई सुध उन्होंने ली। महिला पहलवानों को भी उन्होंने उनके हाल पर छोड़ दिया है कि वे अपने इंसाफ की लड़ाई खुद लड़ें।
दरअसल नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार, ललन सिंह ये केवल चेहरा और नाम हैं, इनके बयानों और विचारों में समाज की असलियत का प्रतिबिंब दिखाई दे रहा है। जिसमें ऊपरी तौर पर बात महिला बराबरी और सम्मान की होती है, लेकिन भीतर ही भीतर एक सड़ी-गली सोच पसरी हुई है, जिसमें महिला को किसी भी हद तक जाकर प्रताड़ित किया जा सकता है। फिर चाहे वह सरेआम निर्वस्त्र कर के जुलूस निकालना हो या जिंदा गाड़ना हो।
सलीम-अनारकली की काल्पनिक कहानी में यह बताया गया है कि शहंशाह अकबर ने हुकूमत की खातिर अनारकली को दीवार में जिंदा चुनवा दिया। फिल्म मुगले आजम में इसका प्रभावशाली चित्रण है, फिल्म में दिखाया गया है कि दीवार के दूसरी ओर से अनारकली को निकाल लिया जाता है, यानी यहां अकबर का उदार रूप दिखा दिया गया। फिल्म है, तो उसमें कल्पनाओं का खेल किया जा सकता है।
लेकिन मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव अपने शासन में दो महिलाओं को जिंदा दफनाने की कोशिश पर क्या कहेंगे, किस तरह अपना उदारवादी चेहरा, लाड़ली बहनों के काबिल भाई का चेहरा प्रस्तुत कर पाएंगे। रीवा जिले में ममता और आशा पांडेय नाम की दो महिलाओं को जमीन विवाद के कारण दबंगों ने जमीन में जिंदा दफना ही दिया था, क्योंकि इन दोनों देवरानी-जेठानी ने उनकी जमीन से होकर गुजरने वाली सड़क का विरोध किया।